इंदिरा प्रियदर्शनी बैंक 29 साल पहले 1995 में करोड़ों का घोटाला करने की प्लानिंग से ही खोला गया था. बैंक से कर्ज की लिमिट केवल 10 हजार थी, लेकिन कंपनियों को 1-1 करोड़ लोन दे दिया गया. हैरान करने वाली बात है कि सभी फर्जी कंपनियों को लोन दिया गया. एक भी कंपनी वजूद में नहीं थी. कागजों में कंपनी बनाकर जालसाजों ने 21 करोड़ लोन ले लिया.
बैंक लोन के पैसों को फर्जीवाड़ा करने वालों ने बड़ी कंपनियों के शेयर खरीदने में निवेश कर दिए. बाद में उन शेयरों को बेच दिया. अब इतने साल बाद पुलिस ने फाइल खोली तो एक माह में ही ₹1.5 करोड़ वापस प्राप्त किए गए हैं. 525 पीड़ितों के ₹15 करोड़ अभी भी डूबे हैं. इन पैसों को जालसाजों ने किन कंपनियों में निवेश है किया है, पुलिस को इसका पता चल गया है. उन कंपनियों को नोटिस जारी कर दिया गया है.
पूरे घोटाले में बैंक के अधिकारियों से लेकर सीए तक की सांठगांठ थी. बैंक अफसरों ने प्लानिंग से ही पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में रजिस्ट्रेशन वाली ऐसी कंपनियों को 1-1 करोड़ तक लोन दे दिए जिनका वजूद ही नहीं था. कागजों में कंपनी बनाकर फर्जी रजिस्ट्रेशन नंबर दिखाकर लोन का आवेदन दे दिया है. इतनी बड़ी रकम कर्ज देने के पहले पड़ताल नहीं की गई.
इस तरह एक-दो नहीं 40 से ज्यादा शैल (फर्जी) कंपनियों को 18 करोड़ का कर्ज बांट दिया गया. इन फर्जी कंपनियों के नाम से कर्ज लेने वाले जालसाजों ने कुछ महीने किश्त जमा की. उसके बाद एक के बाद एक कर किश्त देना बंद कर दिया. लोन के पैसे जैसे ही मिलने बंद हुए बैंक डूब गया और अगस्त 2005 में संचालकों ने चुपचाप इसमें ताला लगा दिया.
पुलिस की पड़ताल में खुलासा हुआ है कि तत्कालीन बैंक मैनेजर उमेश सिन्हा और सीए का बेटा नीरज जैन घोटाले का मास्टर माइंड हैं. नीरज जैन और उसके भाई ने कोलकाता, नागपुर और छत्तीसगढ़ के अलग-अलग पते व नाम की फर्जी कंपनी बनायी. इन कंपनियों की ओर से व्यापार के लिए कर्ज लेने आवेदन खुद लिया.
जाली दस्तावेजों से बैंक ने लोन जारी कर दिया. बैंक मैनेजर को 5 हजार तक लोन देने का अधिकार था. उससे ज्यादा 10 हजार तक का लोन संचालक मंडल के आदेश से दिया जाता था. उमेश ने दस्तावेज में फर्जीवाड़ा कर 1-1 करोड़ तक का लोन दे दिया. 2005 में बैंक बंद हो गया. 2006 में बैंक ने इन्हीं कंपनियों के खाते में ₹3 करोड़ और जमा कर दिया. इस तरह ₹21 करोड़ फर्जी कंपनियों को दिया गया.
पुलिस के तत्कालीन जांच अधिकारी फर्जी कंपनियों तक पहुंच गए, लेकिन उनसे पैसा रिकवरी का प्रयास नहीं किया गया. जबकि ट्रांजेक्शन की पूरी जानकारी उसी समय सभी को थी. जिन लोगों ने कोर्ट से स्टे लिया. उनके खिलाफ अपील भी नहीं की गई. जबकि फर्जी कंपनियों ने कर्ज लेकर 42 कंपनियों में शेयर खरीदा. कुछ साल बाद उन शेयर को बेच दिया. पुलिस अब इन्हीं कंपनियों से संपर्क कर पैसा वापस करा रही है.
बैंक में ₹21 करोड़ का घपला हुआ था. लेकिन पहली FIR में केवल 35 हजार का गबन ही दर्ज किया गया था. पुरानी बस्ती निवासी रवि विक्रम और शंकर सोनकर सहित सब्जी कारोबारियों ने शिकायत दर्ज कराई थी. किसी ने 5 हजार तो किसी ने 10 हजार डूबने की जानकारी दी थी.
पुलिस केवल 35 हजार का गबन ही पहली FIR में लिखा था. बाद में जांच आगे बढ़ती गईं और घोटाले की परतें उधड़ती गईं. बैंक 2005 में बंद हुआ. इसके छह माह बाद अगस्त 2006 में पहली FIR दर्ज की गई. उसमें केवल 15 लाइनें ही लिखीं गई थीं. इसी FIR में बैंक मैनेजर उमेश सिन्हा और सुलोचना आडिल समेत अन्य के नाम थे. शासन ने जांच के लिए टीम बनाई.
पुलिस ने बैंक मैनेजर उमेश सिन्हा, नीरज जैन के अलावा सुलोचना आडिल, किरण शर्मा, दुर्गा देवी, संगीता शर्मा, सविता शुक्ला, सरोजनी शर्मा, रीता तिवारी, नीरज जैन, संजय समेत 19 लोगों को आरोपी बनाया गया. इसमें 13 उस समय सक्रिय राजनीति से जुड़े नेताओं की पत्नियां थीं, जो संचालक मंडल में थीं. 5 लोगों ने कोर्ट से स्टे ले लिया था. बाकी 14 को गिरफ्तार किया गया. इसमें से 4 की मौत हो चुकी है.
17 साल बाद पुलिस ने कोर्ट में इस केस को नए सिरे से खोलने की अर्जी लगाई. उस समय बैंक के तत्कालीन मैनेजर और मुख्य आरोपी उमेश सिन्हा ने नार्को टेस्ट के दौरान कई राजनेताओं के नाम लिए थे. बड़े लोगों के नाम थे. इस वजह से केस रोक दी गई थी. अब सरकार बदलने के बाद पुलिस के माध्यम से फाइल खोली गई है. उमेश सिन्हा के नार्को टेस्ट रिपोर्ट को आधार बनाया गया है.
रायपुर SSP प्रशांत अग्रवाल ने कहा, 17 साल पुराने मामले की फिर से जांच की जा रही है. पुलिस का फोकस गरीब खाताधारकों को पैसा लौटना हैं. ₹1.75 करोड़ वापस कराया गया है और भी पैसा वापस कराया जाएगा. जांच में नए आरोपी पाए जाने पर कार्रवाई की जाएगी.